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रत्नत्रय से अनंत सुख की प्राप्ति – आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज….

सम्यग्दर्शन को रत्नत्रय में प्रमुखता देते हुए एक सम्य्ग्दृष्टि जी में क्या-क्या विशेषताएं होती हैं इस पर अध्ययन करते हुए आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी महाराज कह रहे हैं कि उसमें वात्सल्य, विनय, अनुकम्पा (दया), रत्नत्रय मार्ग में गुणों प्रशंसा, उपगूहन, स्थितिकरण, आर्जव आदि गणों का होना कहा है जिस प्रकार तत्काल प्रसूता गाय अपने बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार एक धर्मात्मा व्यक्ति दूसरे धर्मात्मा व्यक्ति को देखकर उसके अंदर वात्सल्य / प्रेम के भाव होना चाहिए। यही वात्सल्य है न कि एक दूसरे को देखकर ईर्ष्या, मात्सर्य, अहंकार,निंदा का भाव होना।

गुरुजनों के आने पर उठकर खड़े होना, उनके सम्मुख जाना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना, चरण-वन्दना आदि करना ऐ विनय है दुःखी मनुष्यों को देखकर करुणाभाव अर्थात् दया के भाव होना कि हे भगवान इन जीवों के दुःखों को दूर करो ऐसी भावना भाना यह अनुकम्पा गुण है। इसी अनुकम्पा को देखते हुए एक सम्यग्दृष्टि मनुष्य उसकी सहायता करता है उसको योग्य वस्तु देने में भी तत्पर रहता है।

निर्ग्रन्थता ही मोक्षमार्ग है परिग्रह सहित अर्थात् वस्त्र आभूषण को धारण करने वाले मनुष्य कभी भी मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार मोक्ष मार्ग में लगे हुए व्यक्तियों के गुणों की प्रशंसा करना मार्ग गुण प्रशंसा है।

बालबुद्धि वाले मनुष्यों के द्वारा एवं असमर्थ मनुष्यों के द्वारा मोक्षमार्ग में उत्पन्न दोषों का ढकना या उन दोषों को छिपाना उपगूहन गुण है और मार्ग में भ्रष्ट होते हुए मनुष्यों का फिर से उन्हें सद मार्ग में

स्थापित करना स्थितिकरण अंग है और सम्य्ग्दृष्टि मनुष्य सरल परिणामों वाला होता है।

इन्हीं गुणों को धारण करता हुआ वह सम्य्ग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की पूर्णता को प्राप्त करता हुआ अनंत सुख को प्राप्त करता है जहां से फिर उसे कभी लौटकर आना नहीं होता है अर्थात् रत्नत्रय गुणों की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। तीनों लोगों में और तीनों कालों में यह रत्नत्रय गुण ही पूज्य है इसको धारण करने वाला भी पूज्यता को प्राप्त कर लेता है।

हुए भक्तामर स्त्रोत दीप अर्चना का आयोजन आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज के मंगल सानिध्य में चंडीगढ़ जैन समाज के द्वारा किया जा रहा है आप सभी इसमें पधार कर अतिशय पुण्य प्राप्त करें।यह जानकारी संघस्थ बाल ब्र. गुंजा दीदी एवं धर्म बहादुर जैन जी ने दी ।

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