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प्रमाद नहीं, पुरुषार्थ करो – आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज….

चडीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर में ज्ञान, ध्यान तप में लीन आचार्य श्री सुबल सागर जी महाराज ने कहा कि हे धर्म स्नेही भव्य आत्माओं ! प्रमाद जीवन-उत्थान में महाशत्रु है। एक व्यक्ति प्रमाद शून्य होकर सम्यक पुरुषार्थ करे, तो वह विकास को प्राप्त कर लेगा। मानव मस्तिष्क सम्पूर्ण जीवों में विशिष्ट होता है, इसलिए सम्यक् उपयोग की आवश्यकता है। विकासशील मनुष्य अपनी प्रज्ञा को व्यर्थ के विषयों में नहीं लगाता। वह विशेष स्थानों पर ही अपनी प्रज्ञा का प्रयोग करता है, जिसमे स्व-पर हित निहित होता है। लोक में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो मानव के ज्ञान से बाहर हो।

प्रमाद से प्रमाद की वृद्धि होती है और उत्साह से उत्साह की। एक बार किया गया प्रमाद अनेक बार करने योग्य प्रमाद के संस्कारों को जन्म दे देता है, इसलिए बुद्धिमान पुरुषों का कर्तव्य है कि वे एक बार भी प्रमाद न करें। प्रमाद शून्य होकर स्व पर हितकारी मार्ग को प्रशस्त करें तथा श्री जिनशासन को बढ़ाऐ। प्रमाद का त्याग कर उत्साह पूर्वक सतत स्वाध्याय-ध्यान करने से सामान्य व्यक्ति भी महान ज्ञानी- ध्यानी बनकर स्व पर कल्याण कर लेता है, इसलिए दोनों बातों को समझकर स्वयं निर्णय करो अपने जीवन का पुरुषार्थ एवं उत्साह जीवन में कभी नहीं छोड़ना चाहिए। भले ही अभी कार्य की पूर्णता न भी हो, तब भी कार्यपूर्णता के लिए पुरुषार्थ करना, क्योंकि भविष्य में वही पुरुषार्थ कार्य सिद्धि का कारण बनेगा। प्रमाद नहीं, पुरुषार्थ करो। प्रमाद का जीवन उन्माद और बेहोशी का जीवन है। उन्मत्त के पास विवेक नहीं होता, प्रमाद भी विवेक शून्य होता है। प्रभादी व उन्मादी दोनों की एकता है। उन्माद छूटे तो प्रमाद छूटे और प्रमाद छूटे तो उन्माद छूटे। सम्पूर्ण प्रमाद आत्मविशुद्धि के घातक है, मोक्षमार्ग में बाधक हैं, विनाशक हैं। फिर भी यदि कषाय प्रमाद पर नियंत्रण हो जाए तो शेष प्रमाद भी नियंत्रित हो सकते हैं। निष्प्रमाद दशा ही ‘जीव को उभय लोक में सुख को देने वाली है और त्रिलोक्य पूज्यता प्रदान करती है, निर्दोष धर्म साधना अप्रमत्तता से ही संभव है इसलिए प्रतिपल पुरुषार्थ पूर्वक साधनाकरना चाहिए । यह जानकारी संघस्थ बाल ब्र. गुंजा दीदी एवं श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी ।