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व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं सोच- आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज…

चंडीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर सेक्टर 27बी में चातुर्मास कर रहे परम पूज्य आचार्य श्री ने आज धर्म सभा को सम्बोधित करते हुआ कहा कि ! व्यक्ति का व्यक्तित्व स्वयं के सोच पर निर्मित होता है। सर्वप्रथम अपने सोच को सम्यक् करना चाहिए दूसरों के देखने की अप्रेक्षा सर्वप्रथम स्वयं को देखना चाहिए, व्यक्ति का सोच ही पतन वा विकास का कारण है। सोच के अनुसार ही जीवन बनता है। वर्तमान की सोच पर ही भविष्य के जीवन की उज्ज्वलता निर्भर है।

यदि स्वयं की सोच पवित्र है तो प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति गुणवान दिखेगा और जिसको सोच ही विकृत है उसे व्यक्ति हो या स्वयं भगवान में भी दोष ही दोष दिखेंगे। व्यक्ति या वस्तु को ठीक मत करो, वह तो पर पदार्थ है। स्वयं का सोच ठीक करो, वह तो स्वयं का ही विचार है। यह व्यक्ति स्वयं की सोच को ठीक करने का निर्णय कर ले, तो क्षण भर में उसकी उन्नति प्रारंभ हो जाएगी। उत्तम पुरुषों की सोच उत्तम ही होती है और अधम पुरुषों की सोच निम्न क्वालिटी की ही होती है। शरीर की चेष्टा सोच के अनुसार ही होती है और उसी से उपकार – अपकार होता है। स्वयं की सोच पर ही स्व-पर का उपकार – अपकार होता है, इसलिए सोच पर नियंत्रण आवश्यक है। व्यक्ति के भोजन, भाषण, रीति, वस्त्राभूषण और संगति से उसके सोच का ज्ञान हो जाता है।

जिस पुरुष की विराट सोच होता है, वह विश्व का मित्र बनकर जीता है और मरण के उपरान्त भी जगत् के लोगों के हृदय में विश्वास रूप में राज्य करता है।

रक्त कें दूषित होने से शरीर में रोग होते है और सोच विकृत होने पर मन में अच्छे भावों का अभाव हो जाता है। सोच की निर्मलता के लिए सद्-शास्त्रों का स्वाध्याय बहुत आवश्यक है। श्रेष्ठ बुद्धिमान प्रज्ञ पुरुष ही अपनी सोच को पवित्रमय बना पाते है और उसके अनुरूप ही पवित्र आचरण कर पते हैं क्योंकि जैसी सोच विचार होगे, वैसा ही आचार बनता है।यह जानकारी संघस्थ बाल ब्रह्मचारिणी गुंजा दीदी एवं श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी।