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मित्रता सबसे बड़ी पूंजी – आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज…

सभी जीवों के प्रति मन में दया रूप भावों का होना ही करुणा है, करुणा रूपी प्रेमिका में अपना मन लगाने से मन अच्छा होता है। भगवान जिनेन्द्र की आज्ञा का पालन होता है और सभी जीवों के हित की भावना होती है। आत्मा के रशा सामराज्य तक पहुँचने के लिए यह करुणा ही जीवन साथी के समान है। धर्म वही है जो दया से विशुद्ध है।

दया से गीले हृदय में ही सभी अच्छे गुणों का वास होता है। तीर्थकर बनने वाले भगवान् पारस नाथ ने नाग-नागिन के जोड़े को दया से ही उपदेश सुनाया और उनका उद्धार किया। श्री राम ने जटायु पक्षी को दया से पाला। दया भाव से अभिभूत होकर ही चारण- ऋद्धि धारी मुनिराज ने सिंह की पर्याय में महावीर भगवान के जीव को संबोधा। दया-करुणा से ही मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। भगवान तीर्थकर दया से ही बनते है, भगवान बनने से पहले तीर्थंकर भगवान के जीव ने निरंतर प्रत्येक जीव सुखी रहें, सब‌को शांति हो प्रत्येक जीव का कल्याण हो ऐसा विचार करते हुए बार-2 भावना भाई थी उसका परिणाम यह है कि उन्होंने समस्त सुखों को प्राप्त करुणा के साथ रहने वाली उसी की सहेली नम्रता- शिष्टता है। सो जहाँ करुणा होती है वहाँ नम्रता अपने आप आ जाती है। करुणा से मुलायम हुआ मन ही नम्रता और शिष्टता का व्यवहार कर पाता है। नम्र व्यक्ति ही सभ्य होता है। यह करुणा रूपी प्रेमिका ‘बड़े-2 काम भी आसान बना देती है।

जहाँ करुणा है वहाँ ही प्रेम है,मैत्री है, यह मैत्री भावना तो इतनी उदार है कि दुश्मन को भी दुश्मन नहीं मानती और अपने व्यवहार से दुश्मन को भी दोस्त बना लेती है। मैत्री भाव से सहित आत्मा पुरुष महान् पुरुष बन जाता है उदारचित्त बन जाता है। इससे प्रेम करने वाला किसी की भी बुराई नहीं कर सकता और दोषों को ढांकने की उस आत्मा में अद्भुत क्षमता आ जाती है। इससे प्रेम करने वाला कभी भी किसी का अपमान देखकर हर्षित नहीं होता है वह महान पुरुष अपने ‘समान सभी को बनाने की इच्छा करता है। “गुणों की वृद्धि गुणों की आराधना से ही होती है” वैसे तो आत्मा में अनंत गुण हैं, पर इन गुणों से प्रेम करने वाला अपने आप अनंत गुणों का स्वामी पने को प्राप्त होता है।

यह जानकारी संघस्थ बाल ब्र. गुंजा दीदी एवं धर्म बहादुर जैन जी ने दी