जीवन के साथ मरण की कला सीखें – आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज…
चण्डीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर में रविवारीय धर्मसभा में प्रातः कालीन श्री जिनेन्द्र भगवान की अभिषेक, शांतिधारा परम पूज्य आचार्य श्री के मुखारविंद से हुई, फिर पंडित मनोज कुमार जी के द्वारा श्री 1008 आदिनाथ भक्तामर विधान संपन्न हुआ श्रीमान प्रमोद कुमार जी की परिवार का। इसके पश्चात धर्मसभा को संबोधित करते गुरुदेव ने कहाँ कि जन्म तो प्रत्येक मनुष्य का होता है जन्म की सार्थकता तभी है जब यह मनुष्य मरण को भी सार्थक कर ले। अर्थात् हमें अपने मरण को समाधि मरण करना है जागृत रहते हुए। कोई हमें घर से कंडे और दण्डों पर निकाले उसके पहले स्वयं ही घर व समस्त परिग्रह कर त्याग कर अपने कल्याण के लिए तत्पर होना जाना। हमारा हित-अहित किसमें है इसका ज्ञान हो जाना, तभी हम अहित रूप कामों को छोड़कर, अपने हित रूप कर्तव्य में लगेंगे।
समाधि की गहराई के लिए स्वाध्याय ही बहुत अनिर्वाय है क्यों स्वाध्याय के माध्यम से ही स्व-पर [अपना और पराया] का भेदज्ञान होता है। यह भेदज्ञान ही हमें पर से दूर कराता है और अपने नजदीक लाता है। इस संसार में जो भी दिखाई देने वाले पदार्थ है सब पर है उनके कारण ही मनुष्यों को दुःख, कष्ट, वेदना होता है। जितना – जितना इन पर पदार्थों से दूर होते जाते हैं , उतना उतना सुख शांति प्राप्ति होती जाती है और एक समय इस शरीर बाह्य परिगृह रूप पर पदार्थ से ममत्व का त्याग कर अपनी आत्मा के स्वरूप में डूब जाता है उसे ही समाधि कहते है। ममता भाव समाधि का प्रबल शत्रु है, जहाँ-जहाँ ममता है वहाँ-वहाँ समाधि का अभाव है। और ममता का जहाँ अभाव है वहाँ समाधि का प्रादुर्भाव होता है। समाधि वह परम उपकारी विद्या है जो मानसिक, शारीरिक, वाचनिक, कर्मज आदि सम्पूर्ण दुःखों से हटा कर जीव को मुक्त कर देता है। धैर्य शाली व्यक्ति ही समाधि को प्राप्त कर सकता है, अधीर मनुष्य का मन स्थिर नहीं रहता है समाधि के लिए मन स्थिर रहना परम आवश्यक है। और यह समाधि एक योगी ही कर सकता है, भोगी व्यक्ति का मन चलायमान होता है। जिसने बाह्य के समस्त आडंबरों का त्याग कर दिया है जिसने वास्तविकता को जान लिया है वह ही इसे प्राप्त कर सकता है। एक योगी ही अपने जन्म को सफल करता है और फिर समाधि पूर्वक मरण कर अपने मरण को सफल करता है यह यात्रा ममता से हटकर समता रूप परिणामों में होती है। समता रूप भाव (परिणाम) हम सभी को प्राप्त हो यह मनुष्य जीवन की सार्थकता है। यह जानकारी बाल ब्र. गुंजा दीदी एवं श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी।


