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सरल बनो, सुखी रहो’’ – आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज…

जिस प्रकार एक छोटा बालक अपनी एक एक कक्षाओं को पास कर प्रसन्न होता है और आगे की कक्षा में प्रवेश करता है उसी प्रकार आज आप सभी धर्मात्मा लोग 10 धर्म की तीसरी कक्षा उत्तम आर्जव धर्म में प्रवेश कर उसको समझने का प्रयास करेंगे।

“ऋजुभावः आर्जव:”

सरल परिणामों का होना ही आर्जव धर्म है। मन वचन काय को सरल रखना, किसी के प्रति कपट भाव नहीं रखना, मन में जैसी बात हो उसी को वचन से प्रगट करना तथा वैसी ही शरीर की चेष्टा करना सो सरल परिणाम है। माया कषाय का जीतना आर्जव धर्म है। छल-कपट मायाचारी रहित सरलता, सहजता ही आत्मा का धर्म हैं। आत्मा इतनी सहज, निर्मल पावन हो की मन के भाव और शब्द पारदर्शी हो जाये, अर्थात दूसरों को स्पष्ट रूप से समझमे आना लगें।

चड़ीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर में विराजमान आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज ने कहा कि हे भव्य धर्म प्रेमी आत्माओं! सरलता, नम्रता मानव को महान व प्रशंसनीय बनाती है। सरलता विरोधी को अविरोधी बना देती हैं इसलिए जीवन में सरलता है तो सब कुछ हैं। मन वचन काय के सरल होने पर आत्मा परमात्मा बन जाती है पर आवश्यक हैं तीनों योगों की एकता का होना। इसलिए हमारे पूर्व के वा सभी गुरू महाराज एक ही बात कहते है कि “सरल बनों, सुखी रहों। ”

अर्थात् सरल व्यक्ति ही सुखी रह सकता है। संसार में जितने भी लोग दिखाई दे रहें है वे कहीं न कहीं दुखी है कोई मन से दुखी है, तो कोई तन से दुखी है तो कोई धन के अभाव में दुखी है तो कोई धन होते हुए भी पुत्र-पुत्री परिवार से दुखी है इसका मतलब सीधा साधा है कि किसी के भावों में सरलता नहीं है क्योंकि कहते हैं कि कारण के होने पर ही कार्य होता है।

“कपट न कीजैं कोय, चोरन के पुर ना बसें,

सरल सुभावी होय, ताके घर बह-संपदा ।”

गुरु महाराज कहते हैं कि कपट करने वाले लोगों के घर कभी न बसते है इसलिए छलकपट नहीं करना चाहिए। सरल स्वभाव होना चाहिए। सरल, सहज,स्पष्ट वादी लोगों के घर पर बहुत सम्पदा अर्थात् पूँजी होती है। कपट करने वाले लोगों की दुर्गति होती है उन्हें तिर्यंच गति अर्थात् गाय कुत्ता गधा आदि और पक्षी, चीटीं, खटमल आदि नीची यौनियों में जन्म धारण करना पड़ता है और वहाँ पर असहनीय दुखों को प्राप्त करना पड़ता है। इस संसार में सभी लोग चोर-चोर मौसेरे भाई है जो सब कर रहे है तो हम भी कर रहे है लेकिन उसके फल को नहीं ‘देख रहे है। इसलिए ऋजु भाव अर्थात् सरल नम्र रूप रहों, ऐ भाव ही मान कषाय को नष्ट करने वाली है और सुखों को देने वाली है। यह जानकारी बाल ब्र. गुंजा एवं श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी|