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राग से वैराग और वैराग से वीतरागता के पथ पर कदम बढ़ाते हुए…

राग से वैराग और वैराग से वीतरागता के पथ पर कदम बढ़ाते हुए, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन जिनशासन को समर्पित कर दिया, ऐसे महान अध्यात्म वेत्ता, चरित्र शिरोमणि, दर्शन-न्याय व मन्त्र शास्त्र के ज्ञाता, चारों अनुयोगों के प्रकाण्ड विद्वान्, महान ज्योतिषाचार्य, तप-त्याग रूप सौन्दर्य व सौम्यता की प्रतिमूर्ति, बाल सुलभ मुस्कान के धनी, ऐसे परम पूज्य वात्सल्य मूर्ति, राष्ट्रसन्त, गणाचार्य श्री 108 विरागसागर जी महाराज 21वीं सदी के श्रेष्ठ चर्या साधकों में अग्रिम, श्रेष्ठतम आचार्यों में अति महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

भारत भूमि प्राचीन काल से तीर्थंकर, चक्रवर्ती और अनेकानेक महापुरुषों की जन्मदात्री रही है, ऐसे में बुन्देलखण्ड की वसुन्धरा को गौरवान्वित करते हुए दमोह जिले के पथरिया गांव में, माँ श्यामा की कुक्षि से, श्रावक श्रेष्ठि श्री कपूरचन्द्र जी के आंगन में 2 मई, 1963 को जन्मे बालक अरविन्द अपने नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए कमल के समान ही मन को प्रफुल्लित और आह्लादित करने वाले थे। तीन भाइयों और दो बहनों से ज्येष्ठ अरविन्द ने पांचवी तक की अपनी लौकिक शिक्षा पथरिया की शासकीय प्राथमिक पाठशाला से प्राप्त की। तत्पश्चात् 11वीं तक की लौकिक और धार्मिक शिक्षा इन्होंने शान्ति निकेतन, कटनी से प्राप्त की। प्रखर मेधा के धनी अरविन्द ने शीघ्र ही शास्त्री की उपाधि प्राप्त कर, साधु-सन्तों की सन्निधि में रहकर अपने ज्ञान और वैराग्य को वृद्धिंगत करते हुए फिर कभी अपने घर की ओर मुड़कर नहीं देखा। अब तक इनमें वैराग्य का अंकुरण भी हो चुका था। इनके पुण्य की पराकाष्ठा ही थी कि स्वयं तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मतिसागर जी ने मात्र 17 वर्ष की अल्प आयु में, 20 फरवरी 1980 को (शहडोल, बुढार, म०प्र०), इनको क्षुल्लक दीक्षा देकर इनका नामकरण क्षुल्लक श्री पूर्णसागर जी किया। क्षुल्लक अवस्था में जब ये वात्सल्य रत्नाकर, निमित्त ज्ञानी आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज के दर्शनार्थ गए, तो इनकी भवितव्यता को देखते हुए उन्होंने कहा कि आपकी मुनि दीक्षा तो हमारे ही हाथों होनी है। मुनि बनने की आन्तरिक इच्छा और उनकी कठोर तपश्चर्या को देखते हुए, 9 दिसम्बर 1983 को औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज ने मात्र 20 वर्ष की अल्पवय में इन्हें मुनि दीक्षा के संस्कार देकर अर्थात् साधु परमेष्ठी बनाकर परम पद में अधिष्ठित कर दिया और इस संसार के गहन अन्धकार को मिटाने के लिए एक जाज्वल्यमान प्रभञ्जन, मुनि श्री विरागसागर जी के रूप में इस सृष्टि को सौंप दिया।

बुन्देलखण्ड के इस अलौकिक सूर्य ने सम्पूर्ण भारत वर्ष में अपनी आभा बिखेरते हुए जिनशासन की अभूतपूर्व प्रभावना की। इनकी महती धर्म प्रभावना से अभीभूत आचार्य श्री विमलसागर जी ने, 8 नवम्बर 1992 के शुभ दिन (मध्य प्रदेश, छतरपुर) द्रोणगिरी सिद्धक्षेत्र में समस्त समाज एवं विद्वत् गण की उपस्थिति में महज़ 29 वर्ष की आयु में इन्हें महोत्सवपूर्वक आचार्य पद प्रदान किया।

तप-त्याग और साधना की त्रिवेणी आचार्य श्री विरागसागर जी महाराज का पपीता, कटहल, कद्दू, तरबूज, भिन्डी, खुरमानी, सीताफल, रामफल, अंगीठा, आलूबुखारा, चैरी, शक्करपारा, कुन्दरू, स्ट्रॉबेरी, कीवी, ड्रेगन फ्रूट आदि अनेक वस्तुओं का आजीवन त्याग था। इसके अलावा कूलर, पंखा, लेपटॉप, मोबाइल, हीटर, नेल कटर और 1985 से थूकने का भी त्याग था।

आचार्य श्री जी की अपार करुणा, सरल व्यक्तित्व, निश्चल मुस्कान और तेजोमय शरीर की कान्ति से प्रभावित होकर अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने इनका शिष्यत्व स्वीकार कर, इनके श्री चरणों में अपने जीवन को सौंपकर अपना जीवन सार्थक किया।

गुरुदेव की सृजन शक्ति का बखान करने की सामर्थ मुझ अल्पज्ञ में नहीं, किन्तु एक तुच्छ-सा प्रयास है गुरुणांगुरु आचार्य श्री विरागसागर जी की सृजनात्मकता और गहन चिन्तन शैली पर प्रकाश डालने का।

आचार्य विरागसागर जी ने 6 से अधिक साहित्यों पर शोधकार्य किया था। शोधकार्यों में आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी रचित ‘वारसाणुपेक्खा’ पर 1100 पृष्ठीय “सर्वोदयी संस्कृत टीका”, ‘रयणसार’ ग्रन्थ पर 800 पृष्ठीय “रत्नत्रयवर्धिनी” संस्कृत टीका, ‘लिंग पाहुड़’ पर “श्रमण प्रबोधनी टीका”, ‘शील पाहुड़’ पर “श्रमण सम्बोधनी टीका”, ‘शास्त्र सार समुच्चय’ ग्रन्थ पर लगभग 3300 “चूर्णी सूत्र” और अनेक शोधात्मक ग्रन्थ जैसे कि— शुद्धोपयोग, सम्यग्दर्शन, आगम चक्खू साहू आदि चिन्तनीय साहित्य सृजन किया परन्तु आचार्य श्री जी ने अपनी सृजनात्मकता को प्रौढ़ वर्ग तक सीमित नहीं रखा उन्होंने बालकोपयोगी कथा, अनुवाद, गद्य सम्पादित साहित्य, जीवनी व प्रवचन साहित्यादि 150 से अधिक पुस्तकों का लेखन कार्य किया है।

गुरुदेव ने न केवल अनेकानेक साहित्यिक ग्रन्थों का सृजन किया अपितु 350 शिष्य‌ एवं 550 प्रशिष्यों रूप जीवन्त तीर्थों का निर्माण भी कुशलतापूर्वक किया है।

मानव जाति के लिए महान् प्रकाश पुञ्ज की भांति गुरुदेव ने धर्म की प्रेरणा देते हुए जीवन के अन्धकार को दूर करके भव्य जनों को मोक्ष मार्ग पर चलाने का महान् पुरुषार्थ किया।

आचार्य विरागसागर जी ने 150 से अधिक वृद्धजनों को दीक्षा देकर सल्लेखना पूर्वक समाधि कराई, जब वृद्धावस्था के कारण संसार में उन्हें कहीं आसरा नहीं मिला तब आचार्य श्री जी ने सभी वृद्धों को धर्म का उपदेश देकर उनको मोक्षमार्ग पर लगाया। फलस्वरूप उनका जीवन पूरी तरह से धर्म में व्यतीत हुआ था।

अपने इस अल्प जीवनकाल में गुरुदेव ने 100 से अधिक पञ्चकल्याणक करा कर जिनशासन को विरासत के रूप में अमूल्य धरोहर प्रदान की हैं। गुरुदेव की गहन चिन्तनशीलता और दूरदर्शिता का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण गुरुदेव द्वारा स्थापित ‘विरागोदय तीर्थ’ पथरिया जी, में आयोजित यति सम्मेलन रहा। युग प्रतिक्रमण की श्रृंखला में, आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी की पट्टपरम्परा का निर्वहन करते हुए आगम में वर्णित गणधर, प्रवर्तक, स्थविर आदि पांच पद, उन्होंने अपने शिष्यों को उनकी योग्यता के अनुसार प्रदान कर श्रमण संस्कृति में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। इस महायतिसम्मेलन के बाद आचार्य श्री जी ने “गणाचार्य” के पद को सुशोभित किया।

अपनी दीक्षा स्थली औरंगाबाद में अपने 2024 के चातुर्मास स्थापना के उद्देश्य से विहार रत अचार्य संघ को, आचार्य श्री जी के अचानक प्रतिकूल स्वास्थ्य को देखते हुए विहार को रोक कर जालना में ही विश्राम करना पड़ा। अपनी समाधि का पूर्वाभास होने से आचार्य श्री जी ने बड़ी ही सजगता एवं आगमानुसार अपना आचार्य पद का त्याग एवं कुछ आवश्यक विशेष निर्देश बिना संघ की उपस्थिति में वीडियो रिकॉर्डिंग के माध्यम से समस्त संघ को देकर, पट्टाचार्य पद श्रमणाचार्य श्री विशुद्धसागर जी को देने की आज्ञा दी एवं प्राणीमात्र से क्षमायाचना करते हुए अपना आशीर्वाद दिया। बुद्धि पूर्वक संल्लेखना को स्वीकार करके, चारों दिशाओं में दिग्बन्धन करके सामायिक पूर्वक गुरुदेव ने, 4 जुलाई की मध्य रात्रि में 02:24 पर अपनी इस औदारिक देह का त्याग कर अपने शाश्वत लक्ष्य की ओर महाप्रयाण किया। गुरुदेव की आकस्मिक समाधि से सकल जैन समाज स्तब्ध है। आचार्य विमलसागर जी महाराज के सौर-मण्डल का यह अलौकिक सूर्य जग को अपने ज्ञान, आचरण और चरित्र की रश्मियों से आकण्ठ आप्लावित करने के उपरान्त अपनी आभा को समेट कर अस्ताचल में विलीन हो गया। पूज्य गुरुदेव के महान् उपकारों से जैन समाज कभी उऋण नहीं हो सकेगा। प्रभु महावीर से करबद्ध प्रार्थना है कि मेरे दादा गुरु की यश पताका यावत् चन्द्र-दिवाकर चारों दिशाओं में निर्बाध लहराती रहे एवं वे भी आपकी भांति परम निर्वाण को प्राप्त करें। परमेश्वर से यही प्रार्थना करते हुए…

गुरु चरण चञ्चरीक

श्रुताराधक सन्त

क्षुल्लक श्री प्रज्ञांशसागर जी

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