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आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज…….

चंडीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर में धर्म सभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री सुबलसागर जी महाराज ने अष्टपाहुड नामक ग्रंथ का स्वाध्याय करते हुए भाव पहुड समझाया कि सारे संसार का खेल जो चल रहा है उसका मुख्य कारण भाव अर्थात् परिणाम है। परिणाम से ही समस्त क्रिया कलाप का फल मिलता है। उन्होंने कहा हे साधु अगर तुमने बाहर से निर्ग्रंथ भेष को धारण कर लिया और उस रूप अगर अतरंग में भाव, परिणाम नहीं है तो तुम्हारा साधु भेष धारण करना व्यर्थ है । क्योंकि जैसे भाव, विचार, सोच, परिणाम होंगें उसी रूप क्रिया रूप चारित्र हमारे काम अर्थात शरीर में प्रकट होगा । किसी मनुष्य की जिस चीज या वस्तु में इच्छा होती है उसी के अनुरूप उसकी श्रद्धा बनती है और श्रद्धा के होने पर उसे प्राप्त करने का प्रबल पुरुषार्य भी करता और उसे प्राप्त भी कर लेता है। यह सब उसके प्रवल तीव्र भावों के कारण ही हुआ ।

मोक्षमार्ग में तीन रत्न है भिन्न-भिन्न रूप में तीनों रत्न अपना-अपना विशेष स्थान रखे है लेकिन जहाँ इन तीनों की एकता होती है वहाँ ही रत्नत्रय का फल प्राप्त होता है। भिन्न-भिन्न रहने में किसी की सार्थकता नहीं है। इसी प्रकार हमारा भाव, हमारा ज्ञान और हमारा चारित्र तीनों की एक रूपता ही कार्यकारी है। संसार में जिस वस्तु का भाव अर्थात् रेट जितना ऊँचा होता है वह सबसे अच्छी वस्तु मानी जाती है, उस वस्तु की गुणवता भी बाजार में अच्छी होती है उसी को सभी लोग लेना प्रसंद करते है।

इसी प्रकार भाव की कीमत भी हमारे मोक्ष- मार्ग में होती है किसी व्यक्ति विशेष के जितने, ऊचे भाव होते है मोक्षमार्ग में वह उतनी ही अपनी विशुद्धी को बढ़ाता जाता है विशुद्धी के बढ़ने से संक्लेष रूप भात नष्ट हो जाते है और संक्लेष के नष्ट होते ही उतनी – उतनी विशुद्धी बढ़ती जाती है शनैः शनैः विशुद्धी को हम बढ़ाते-बढ़ाते सर्व मूल्यवान अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं इसीलिए आवश्यकता है तो अपने भावों/ परिणामों को निर्मल रखने की। इस संसार में भावों को गिराने वाले निमित्त जगह-जगह आपको मिल जाऐंगे, इसने अपनी ‘रक्षा करने की प्रेरणा हमें हमारे गुरु महाराज दे रहे अत: सत संगति, स्वाध्याय, आराधना आदि के माध्यम से हम अपने भावों श्रेष्ठ बना सकते है। यह जानकारी संघस्थ बाल ब्र. गुंजा दीदी एवं श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी।